कहानी : एक बूंद पानी
रात काफी देर तक वो जागती रही ।आंखों में नींद इतनी थकावट के बाद भी नहीं आ रही थी। हर रोज जब वह सारे काम खत्म करके चारपाई पर लेटती , तो एक ही बात दिमाग में आती ।आठवां महीना चल रहा है पता नहीं इस बार क्या होगा चुनिया के पहले ही पांच लड़कियां थी ऊपर से ससुराल के ताने भूल कर भी वह नहीं भूल पाती थी ।इसने तो लड़कियां ही पैदा करनी है।
अगर ना उठी तो पति और सासू मां का बना हुआ मुंह अलग से देखना पड़ेगा जैसे ही उठने को हुई ,पेट में अचानक बहुत तेज दर्द उठा । वह फिर से बैठ गई। उठ कर पानी के घड़े तक गई एक लोटा पानी रह गया था। बाकि घड़े भी खाली है ।उसके उठने से पहले भरा हुआ पानी अम्मा जी ने घर के आंगन में गिरा दिया था कि बहुत तप रहा है ।कदम आज बहुत भारी हो रहे थे इतना पानी कल चुनिया ने भर के रखा था कि कल कम पानी लाना पड़े । आज ही भर लेती हूं। आज तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है कल कहीं ज्यादा ना हो जाए ।
हर रोज सुबह -शाम घर से डेढ़ किलोमीटर दूर सात गांवों को एक ही सरकारी नल था जिसमें समय से दो टाइम पानी आता था । वह दिन में 10से 12 घड़े पानी भर कर लाती थी हर मौसम में गर्मियों में पानी लाना और भी ज्यादा मुश्किल हो जाता था । तपती रेत की हवा और सर पर पानी का घड़ा ।
चुनिया ने अपनी बड़ी बेटी मुन्नी को उठाया ।तू भी साथ चल पानी लेने के लिए ।मुन्नी खींझ कर बोली। अम्मा मुझे नहीं जाना। दाल रोटी भी तो करनी है ।पीना भी तो है क्या करें पानी तो लाना ही पड़ेगा । उठ जा मेरी तबीयत अभी ठीक नहीं है। मुन्नी करवट लेकर दूसरी तरफ हो गई। पर मुन्नी उठी नहीं।
चुनिया सोच रही थी, फिर भी पानी तो लाना था ।घर के सारे काम करने थे किसे कहती, कहती भी तो यही सुनती बहाने लगा रही है काम ना करने । जितना मर्जी काम कर लो लेकिन यह करती क्या है इसका उत्तर उसे आज तक नहीं मिल पाया था । जिंदगी एक चक्की की तरह बस काम में पिसती चली जा रही थी हर रोज सुबह-शाम पानी लाने , लकड़ियां इकट्ठी करने और खाना इसी में चला जाता उसका लेकिन अपने दर्द को तो वह महसूस ही नहीं करती थी । इसी सोच में उसने दो घड़े उठाएं। अभी निकलने ही लगी थी कि मुन्नी भी दो घड़े लेकर आ गई। तपती धूप में ,रेत में जीवन की एक बूंद तलाश करती वे दोनों सरकारी नल पर पानी भरने लगी। चुनिया मुन्नी के चेहरे को देखती हुई सोच रही थी औरत होने की अपनी जिम्मेदारी को पूरा करती हुई अपनी एक बूंद प्यास के लिए अनेकों घड़े भर कर भी वह प्यासी ही रह जाती हैं।
स्वरचित रचना
प्रीति शर्मा "असीम " नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
No comments:
Post a Comment