आज पितृ दिवस है। पिता से अलग कुछ भी नहीं, कोई दिन कोई पल ऐसा नहीं जब वो न हो! फिर भी यह एकदिन अंतशः को खंगालने के लिए महत्वपूर्ण है। संबंधों के लिए,उन्हें यादगार बनाने के लिए, उन्हें याद करने के लिए जिसने भी इस दिवस की कल्पना की उसे सैल्यूट हैं। पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बाबूजी
सोचता हूँ लिखूँ एक पाति बाबूजी को
एक बाबा और एक आजी को
यूँ तो चलन में नहीं है लिखना पाति
ना ही सिचि जाती है अब संवेदना
अंतर्देशीय पत्र पर
जाने क्यों आज
फिर भी व्याकुल है मन लिखने को पाति
बाबूजी को,बाबा को ,आजी को
लिखना चाहता हूँ उनके वंश बेल को,
उनके बोये पेड़ को, तने को, शाखों को
उस घर को उस आँगन उस द्वार को ,
संदूक,पटिहाट, मचिया दरवाजे पर घूमती वह उजली बछिया
लिखना चाहता हूँ उस सड़क को
जिससे गुजरते हुए नहीं देखे वो विशालकाय हाथी
या देखना नहीं चाहते थे अपने लक्ष्य से इतर वह कुछ भी
कहती है आज भी मास्टराईन आजी भाई जी संत थे
लिखना चाहता हूँ
अब नहीं आती ससुरईतिन बेटियाँ आँगन में चहकने, खोईछा, सिन्दूर का अब उठ गया है रिवाज़ ,,
अंकवार की खो गयी है परंपरा
बिस्किट चाय ने स्वागत और विदाई का उठा लिया है ज़िम्मा
अब रसोई से भूख नहीं डकार निकलता है
लिखना चाहता हूँ
उदास हो गयी है अम्मा की आँखें
भूल गई है हंसना
अब वह बतियाती है अपने आप से
मड़ुआ मकई तीसी मेथी सब हो गये हैं जैसे उसके लिए अपशगुन
वह जिती है बीते दिनों में, आज गुजार रही हो जैसे
लिखना चाहता हूँ ताऊजी की खामोशी/अकेलापन असहज असहाय
छूट गया है अधिकार जताने का वह आदत या टूट गया है बाजू ,मन
छोड़ आए हैं वह लहकती लकड़ियों के बीच
केवल अपनों को नहीं अपने सपनें को भी
अब उनकी आँखें नहीं चमकती
लिखना चाहता हूँ और भी बहुत कुछ
झूठ फरेब धोखा बेईमानी
वंश बेल के सड़े बीज को
गाँव शहर देश दुनिया सबको
लिखना चाहता हूँ
खुद को एक पाति बाबूजी की तरफ से।
वरुण प्रभात
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