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भगत सिंह
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“यदि बहरों को सुनाना है तो आवाज़ को बहुत जोरदार होना होगा”

“…व्यक्तियो को कुचल कर , वे विचारों को नहीं मार सकते।”

“निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम् लक्षण हैं।”

“महान साम्राज्य ध्वंस हो जाते हैं पर विचार जिंदा रहते हैं।”

Sunday, January 17, 2021

सूरज सिंह राजपूत ( जमशेदपुर , झारखंड ) : अगर लिखना है आम जनमानस का चीत्कार, तो भूलना होगा महलों के उपकार, उपहार



कलम जिसने कभी बादलों को ललकारा था, जिसने मजबूर और लाचार के हक के लिए स्वर्ग को लूटने तक जैसे दुस्साहस को लिख डाला .... !

कलम, जिसने 
" कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं "  जैसे संवेदनशील मुद्दों पर,
" क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें ?
क्या दीमकों ने खा लिया हैं , 
सारी रंग बिरंगी किताबों को ?
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने ? "
जैसे अनगिनत प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने का दुस्साहस किया ।

कलम,
 जिसे घनघोर अंधकार में भी कोयल के मधुर स्वर में विद्रोह का बीज दिखाई देता था , जिसने कैद में भी अपनी स्वतंत्र भावनाओं को व्यक्त करते हुए लिखा
" इस शान्त समय में,
अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो!
चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज
इस भाँति बो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो! "

कलम, जिसने शासन की आंखों से आंखें मिला कर शासन की करनी को हाथों में जंजीर लिए हुए लिखा ,

" काली तू, रजनी भी काली, शासन की करनी भी काली
काली लहर कल्पना काली, मेरी काल कोठरी काली,
टोपी काली कमली काली, मेरी लौह-श्रृंखला काली,
पहरे की हुंकृति की व्याली, तिस पर है गाली, ऐ आली! "

कलम के इस तेवर को देख अक्षर को चूमने को जी ललचाता है वह प्रत्येक अक्षर जो आम जनता के पक्ष या दर्द व मन की व्यथा को व्यक्त करते हो ।

किंतु बदलते परिवेश शायद कलम के सिपाहियों को कदाचित दिशाहीन कर रहा है,
वजह क्या है ?
शायद कलम के सिपाहियों की आवश्यकताएं बढ़ने लगी है ।
शायद उनके विचार पर उपकार भारी पड़ने लगा है ।
शायद स्वतंत्र सोच उन्हें चिढ़ाने लगे हों, या फिर उन्हें वह आइना दिखाने लगे हैं जिससे वे अब तक स्वयं बचने का प्रयत्न कर रहे हों ।

अगर लिखना है आम जनमानस का चीत्कार
तो भूलना होगा महलों के उपकार, उपहार ।

- सूरज सिंह राजपूत , जमशेदपुर , झारखंड

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