कलम जिसने कभी बादलों को ललकारा था, जिसने मजबूर और लाचार के हक के लिए स्वर्ग को लूटने तक जैसे दुस्साहस को लिख डाला .... !
कलम, जिसने
" कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं " जैसे संवेदनशील मुद्दों पर,
" क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें ?
क्या दीमकों ने खा लिया हैं ,
सारी रंग बिरंगी किताबों को ?
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने ? "
जैसे अनगिनत प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने का दुस्साहस किया ।
कलम,
जिसे घनघोर अंधकार में भी कोयल के मधुर स्वर में विद्रोह का बीज दिखाई देता था , जिसने कैद में भी अपनी स्वतंत्र भावनाओं को व्यक्त करते हुए लिखा
" इस शान्त समय में,
अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो!
चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज
इस भाँति बो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो! "
कलम, जिसने शासन की आंखों से आंखें मिला कर शासन की करनी को हाथों में जंजीर लिए हुए लिखा ,
" काली तू, रजनी भी काली, शासन की करनी भी काली
काली लहर कल्पना काली, मेरी काल कोठरी काली,
टोपी काली कमली काली, मेरी लौह-श्रृंखला काली,
पहरे की हुंकृति की व्याली, तिस पर है गाली, ऐ आली! "
कलम के इस तेवर को देख अक्षर को चूमने को जी ललचाता है वह प्रत्येक अक्षर जो आम जनता के पक्ष या दर्द व मन की व्यथा को व्यक्त करते हो ।
किंतु बदलते परिवेश शायद कलम के सिपाहियों को कदाचित दिशाहीन कर रहा है,
वजह क्या है ?
शायद कलम के सिपाहियों की आवश्यकताएं बढ़ने लगी है ।
शायद उनके विचार पर उपकार भारी पड़ने लगा है ।
शायद स्वतंत्र सोच उन्हें चिढ़ाने लगे हों, या फिर उन्हें वह आइना दिखाने लगे हैं जिससे वे अब तक स्वयं बचने का प्रयत्न कर रहे हों ।
अगर लिखना है आम जनमानस का चीत्कार
तो भूलना होगा महलों के उपकार, उपहार ।
- सूरज सिंह राजपूत , जमशेदपुर , झारखंड
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