सेन्गोल : शासक पर नियंत्रण का प्रतिक
आत्मबोध। ब्रह्मा ने सृष्टि की उत्पति की।पालन का काम विष्णू ने किया। संहार अर्थात विलय का काम शिव के जिम्मे गया।प्रजापति ने राजा बनके व्यवस्था सम्भाला। प्रजापति को कण्ट्रोल करने के लिए शिव ने अपना दंड ब्रह्मा विष्णू के कहने से प्रजापति के सामने रख दिया। जिससे प्रजापति न्याय और धर्म पुर्वक राज करे। शिव ने अपने मत के प्रचार प्रसार के लिए ऋषी अगस्त को अपने पुत्र कार्तिकेय के साथ सुदूर दक्षिण में भेजा। तब प्रश्न था की, कैसे लोग हमें आपका प्रतिनिधि मानेंगे और कैसे कार्तिकेय न्यायपुर्ण व्यवस्था बनाये रखेंगे। तब शिव ने अपना दंड प्रजापति से लेकर अगस्त को दे दिया की इससे लोग आप लोगों को मेरा प्रतिनिधि मानेगे और जब मेरे मत का राज स्थापित हो जाए तो आप कार्तिकेय को इसे सौप देंगे, जिससे कार्तिकेय कभी उदंड नही होगे। मनमाना नही करेंगे न्याय और समानता के अनुसार राज करेंगे। ऐसा हुआ भी। यह पौराणिक बाते है।
प्राचीन भारत में राजा अपने साथ में एक प्रतीकात्मक छड़ी रखते थे। इसे राजदंड कहा जाता है। यह जिसके पास भी होती थी, पूरे राज्य का वास्तविक शासन उसी के आदेशों से चलता था। इसीलिए इसे राजदंड कहा जाता था। धार्मिक गुरु भी इसे धारण करते थे। वर्तमान में भी इसे अधिकतम धर्मगुरु धारण करते हैं। हिंदू धर्म के चारों प्रमुख शंकराचार्यों सहित ईसाई धर्म के प्रमुख पोप भी ऐसे ही एक राजदंड को साथ रखते हैं जो उनकी शक्ति और उनकी सत्ता का प्रतीक है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार इसे राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते समय धारण करते थे।पूरे इतिहास में, सेंगोल का उपयोग विभिन्न साम्राज्यों जैसे गुप्त साम्राज्य (320–550 ईस्वी), चोल साम्राज्य (907–1310 ईस्वी), और विजयनगर साम्राज्य (1336–1946 ईस्वी) द्वारा किया गया है। यहां तक कि मुगल और ब्रिटिश सरकारों ने भी सेंगोल को अपनी शक्ति और अधिकार के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया। सेंगोल' तमिल शब्द 'सेम्मई' (नीतिपरायणता) व 'कोल' (छड़ी) से मिलकर बना है। ‘सेंगोल’ शब्द संस्कृत के ‘संकु’ (शंख) से भी आया हो सकता है। सनातन धर्म में शंख को बहुत ही पवित्र माना जाता है। मंदिरों और घरों में आरती के समय शंख का प्रयोग आज भी किया जाता है। तमिल राजाओं के पास ये सेंगोल होते थे जिसे अच्छे शासन का प्रतीक माना जाता था। शिलप्पदिकारम् और मणिमेखलै, दो महाकाव्य हैं जिनमें सेंगोल के महत्त्व के बारे में लिखा गया है। विश्वप्रसिद्ध नीति ग्रंथ तिरुक्कुरल में भी सेंगोल का उल्लेख है।
हिंदू सभ्यता का इतिहास कागज से ज्यादा पत्थरों में लिखा गया है। हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर में नटराज के रूप में खड़े शिव की पत्थर की मूर्ति है। इस मूर्ति का निर्माण 8वी शताब्दी में हुआ है।जिसमें नटराज शिव के बाएं हाथ में राजदंड (सेनगोल) साफ दिखाई दे रहा है। सेंगोल के ऊपर नंदी विराजमान हैं। इस मूर्ति से देखा जा सकता है कि राजदंड या धर्मदंड या सेंगोल न केवल राजाओं द्वारा धारण किया जाता है, जिसे आदिपुरुष शंकर ने बनाया और धारण किया है। धारण का मतलब "विचार जो सभी को गले लगाता है", अर्थात हर समय दया और शासन का सभी प्राणियों की सुध लेने का प्रतीक है। यह दंड भगवान शिव/विष्णु और उनके प्रतिनिधि माने जाने वाले सम्राट की अबाधित ऐश्वर्य और संप्रभु शक्ति का प्रतीक है। प्रजा का पालन करते हुए यह धार्मिक दंड समय-समय पर राजा को अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य और राजधर्म के प्रति जागरूक करता है।
दक्षिण भारत मे चोल राजाओं ने अपने सत्ता के हस्तांतरण के प्रतिक रुप में इस सेन्गोल को अपनी परम्परा में शामिल कर लिया। कहा जाता है की यह प्रतिक चिन्ह जिस राजा के पास रहा, वह बहुत शान्ति और सुख पुर्वक राज किया। कभी उदंड नही हुआ। अब प्रश्न है की उत्तर भारत मे ऐसी परम्परा क्यो नही रही ? तो उत्तर भारत में भी ऐसी परम्परा थी। मगर उत्तर भारत में इस्लामी आक्रांताओ ने इतना आक्रमण किया की हमारी धर्म, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा लगभग खत्म सी हो गयी। मगर दक्षिण इन सब आपदाओं से बचा रहा। हजारों साल की परम्पराए आज भी दक्षिण के मंदिर और रिवाजो मे आज भी चली आ रही है।
देश को जब अजादी मिलने वाली थी। तब माऊंटबेटन ने नेहरु से चर्चा किया की सत्ता हस्तांतरण के लिए प्रतिक क्या होगा ? क्योकी भारत आज़ाद तो हो नही रहा है अमेरिका की तरह।
चाहे जिस भी वज़ह से इंग्लैंड अब भारत का सत्ता भारतीयो को दे देना चाहता है। क्योकी अब खुद वह अपना देश संभाल नही पा रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध ने इंग्लैंड की आर्थिक् हालत बदतर कर दी है और भारत में उसकी सेनाओं मे विद्रोह हो गया है। हालात 1857 जेसे ना हो अंग्रेजो के लिए, उन लोगों ने भारत सहित कुछ अन्य देश को भी सत्ता हस्तांतरित करने का फैसला बकायदा संसद ले लिया। इंग्लैंड अब तक भारत पर राज किया था अपनी सेना के द्वारा ही। सेना इंग्लैंड के साथ थी ज्यादा तन्ख्वाह और सुख सुविधा पाने से। अब सेना ही भड़क गयी थी। तो हट जाना ही बेहतर है। देश चाहता तो अंग्रेजो से सत्ता हस्तांतरित नही करवाता। सत्ता अपने दम पर ले लेता। मगर कांग्रेस आज़ादी के बजाय सत्ता हस्तांतरित होने में ही लगी थी। यह भी अंग्रेजो की चाल थी कांग्रेस के साथ की देश मे उसके खिलाफ़ बडा आन्दोलन होने से रह गया। अगर हो गया होता तो अन्ग्रेज यहा से बडे बेज़्ज़त होकर और अपना सब कुछ खोकर जाते।
तब नेहरु ने राजगोपालचारी जी से इस बारे मे पुछा।राजगोपालाचारी दक्षिण के चोल राजाओं के कार्यक्रम में सेन्गोल को देखें थे। तो उन्होनें यह सुझाव दे दिया। साथ ही यह भी कह दिया की जिसने भी इसे धारण किया है वह लम्बे समय तक शासन किया है। नेहरु ने यह बात मान ली। दक्षिण के रीति रिवाज के अनुसार और राजाजी को Sengol बनाने का काम सौंपा गया। राजाजी ने थिरुवदुनथुराई अधीनम की मदद ली, जिन्होंने बदले में, 20वें गुरुमहा सन्निथानम श्री ला श्री अंबालावन देसिका स्वामीगल को इसे तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। Sengol 5 फिट लम्बा 800 ग्राम सोने और चांदी से बनाया गया, जिसके ऊपर एक नंदी बनाया गया था। नंदी ‘न्याय’ के प्रतीक हैं, जो न्याय और निष्पक्षता के आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है।
इसके अतिरिक्त नंदी के नीचे वाले भाग में देवी लक्ष्मी व उनके आस-पास हरियाली के तौर पर फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे गए हैं, जो कि राज्य की संपन्नता को दर्शाती हैं।
राजदंड सबसे पहले लॉर्ड माउंटबेटन को थिरुवदुथुराई अधीनम के एक पुजारी द्वारा दिया गया था। फ़िर इसे वापस लेकर गंगाजल से शुद्ध किया गया। चोल काल के दौरान सत्ता के हस्तांतरण को शैव महायाजकों द्वारा इसे पवित्र किया गया। सी राजगोपालाचारी ने तब तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी) में थिरुववदुथुराई अधीनम के नेता से ऐसा ही करने का अनुरोध किया था, ताकि अंग्रेजों से भारतीय हाथों को सत्ता सौंपी जा सके। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त, 1947 की रात लगभग 10:45 बजे तमिलनाडु के अधिनाम के माध्यम से अपने घर पर स्थित कांग्रेस के अन्य नेताओं की उपस्थिति में सेंगोल (Sengol) को स्वीकार कर लिया। जो अंग्रेजों से हमारे देश के लोगों के लिए सत्ता के हस्तांतरण का संकेत था। इस अवसर के लिए रचित एक विशेष गीत के गायन के साथ चोल-शैली के इस प्रतिक का जश्न मनाया गया। तमिल कवि संत थिरुगनासंबंदर ने कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्रार्थना के रूप में सातवीं शताब्दी ई.पू. में रचित “कोलरू पधिगम” नामक छंद गाए। बाद मे इसे प्रयागराज स्थित संग्रहालय में नेहरु वीथिका में नेहरु जी की छडी के रुप मे
रख दिया गया। मै नही कहता की यह काम नेहरु जी ने किया।उनकी मृत्यू बाद बनी नेहरु वीथिका में नेहरु जी से सम्बंधित चीजों को रखा गया। जिसमें इसे नेहरु की छडी मान लिया गया। यह तो नेहरु जी के वंशजों को सोचना चाहिये था की 800 ग्राम सोने चांदी से बने 5 फिट लम्बा छडी कौन यूज़ करता है? अगर नही सोचना था तो अपने पुराने फोटोग्राफ्स document देख लेते जो नेहरु जी के घर ही पड़े थे। यह कांग्रेस के द्वारा किया गया एक घृणित काम है। प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा पुन इसका मह्त्व दिया जाना उचित और सम्मानजनक काम है। 28 मई को इस सेंगोल को प्रयागराज के संग्रहालय से हटाकर एक बार फिर भारत की नवनिर्मित संसद में इसे स्थापित कर दिया गया। इस राजदण्ड का प्रयोग राजा द्वारा किया जाता था क्योंकि अतीत में भारत में राजतंत्र था। लेकिन अब, चूंकि भारत एक लोकतंत्र है, यहां कोई भी व्यक्ति राजा नहीं है, भारत का संसद यहां का राजा है। इसलिए, यह सही है कि यह राजदंड एक संसदीय ताकत के पास होना चाहिए और ऐसा ही हो रहा है। कई लोग अफवाह फैला रहे हैं कि मोदी खुद को राजा मानते हैं इसलिए उन्होंने इस सेंगोल को अपने पास रखने का फैसला किया है। लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं है। यह सेंगोल संसद में होगा और देश की सर्वोच्च सत्ता संसद के पास होती है। प्रधानमंत्री संसद और भारतीय लोकतंत्र का सेवक होता है।
© बिमल तिवारी "आत्मबोध" देवरिया उत्तर प्रदेश
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