कहानी : आशीष की चूड़ियां
"उ...ई....चू....ड़ी...."विसवा चूड़ियों का गट्ठर पीठ पर लादे आवाज लगाता तो घरों की ड्योढ़ी के बाहर कितने ही बोल खनक पड़ते। चूड़ियां खनकने लगतीं , घूंघटों की ओट से इशारे होने लगते। कुंवारी लड़कियां सहन में आ खड़ी होती और ऊंची आवाज में चिल्लाती-" ए विसवा पहले ही इधर आ। भाभी को माय के जाना है।"
"नहीं विसवा पहले इधर आ ,हमारा घर पहले पड़ता है।"
"विसवा, जरा घर आना।मुई भैंस ने लात मार दी। सारी चूड़ियां खनखना कर टूट गई।"
अकेला विसवा होता और उसके पीछे ढ़ेरों आवाजें होती ।विसवा असमंजस में पड़ जाता कि पहले किधर जाए। वह जानता था लड़कियां और बहुएं सारा सामान निकलवा कर खुलवा देती हैं। फिर लेंगे दो आने का आलता, आठ आने की बिंदी, एक नाखूनी गिलट की माला, चार आने के मोतियों के झुमके या फिर' तेज बहुत है'- कहकर खाली ही टरका देंगीं। कितने नखरे हैं इन लड़कियों के।मन ही मन खीजता और सोचता पर प्रकट रूप से कभी भी न खीजता। लड़कियों की भोली नजर और स्फटिक सी साफ हंसी उसे विभोर कर देती।
अरे यह तो चिड़िया है इनके चहकने के दिन हैं ।खूब जी भर कर चहक लें ।क्या पता किस आंगन में जाकर बसेरा कर लें और वह इस चहक ने को सुनने को भी तरस जाए।
कितनी ही बेटियां बहू बनकर ससुराल की चौखट पर गई तो वहीं जाकर बस गयीं ।कभी-कभी तीज त्योहार पर मिलेंगी तो पूछेंगी -'कैसे हो विसवा?' उसे सुनकर बड़ा दुख होता है ।ये चिड़िया पिंजरे में कैदी जैसी बोली कैसे सीख गई। विसवा के सामान की छेड़छाड़ उठा पटक सब बंद। न सामान देखने की उत्सुकता और ना खरीदने का उत्साह ।जैसे साठ साल की बूढी हो गई हो। विसवा की आत्मा तक लरज उठती। वह जल्दी-जल्दी निःश्वास खींच कर वहां से चल देता।
सबसे पहले वह गांव की बुढ़ियो की आवाज सुनता। वे मोटी और पक्के कांच की चूड़ियां पहनती। छोटी-छोटी कलाइयों में गढ़ती सी ।विसवा उनकी पसंद जानता था। एक लच्छा निकालता और चुपचाप चूड़ी पहना देता। न मोल न भाव। वे जो कुछ दे देती चुपचाप जेब में डाल देता ।चलते-चलते अम्मा राम राम, काकी पैर छुए ,चाची सलाम कहता और वे बूढ़ियां विसवा को आशीषों से लाद देतीं।
विसवा मन ही मन हंसता। गांव की बड़ी बूढ़ियों के आशीष कभी नहीं फलेंगे। ना विसवा का घर बार होगा ना फले फूलेगा ।बस ले देकर एक बूढी मां ही तो है जो हरदम खाट में पड़ी खांसा करती है। ढेरों बलगम के साथ कभी-कभी खून भी उगल देती है ।डॉक्टर ने कहा था कि शहर में जाकर इलाज कराए। टीवी हो गई है।
विसवा सोचता- टीवी जैसे रोग तो राजा महाराजाओं के होते थे विसवा की झोपड़ी में कैसे आ गए। यह बात नहीं की विसवा अपनी मां को प्यार नहीं करता था इसी से शहर इलाज को नहीं ले गया पर विसवा मजबूर था। बीमार बूढी मां की सेवा करता, टिक्कर सेंकता या गली-गली चूड़ियां बेचता। तब कहीं थोड़ी सी दवा दारू और रोटियां का जुगाड़ कर पाता।
मोहल्ले टोल वाले कहते विसवा ब्याह कर ले घर में खटने से तो बच जाएगा। मां भी कई बार कह चुकी थी पर विसवा अपनी स्थिति अच्छे प्रकार जानता था। उसकी कमाई में किसी तीसरे पेट की गुंजाइश नहीं थी। ब्याह के बाद एक क्या कई पेट बढ़ जाते ,विसवा सोचता और मन मसोस कर रह जाता। पेट भरा हो तो तन की आग जागती है, पर विसवा पेट की आग के आगे तन की आग को भुला बैठा था।
गांव में कहीं ब्याह शादी मुंडन या जचकी होती विसवा की टेर लगती ।विसवा सारा सामान सहेज पहुंच जाता। नगद रूपयों के साथ मिठाई पकवान या गुड आटा भी मिलता। फसल पर अनाज से हिस्सा मिलता। बस इसी तरह विसवा की जिंदगी घिसट रही थी ।पहले बापू यह काम करते थे। विसवा पंद्रह साल का रहा होगा तभी बापू हैजे में चल बसे और चूड़ियों का गठ्ठर विसवा के कंधे पर आ गया। विसवा के लिए यह काम नया नहीं था ।अक्सर बापू के साथ-साथ एक गट्ठर उठाकर वह भी गली-गली घूमा करता था।
एक बार ठोकर खाकर लाख संभालने पर भी खुद को ने संभाल सका और चूड़ियों के गठ्ठर सहित गिर गया। सारी चूड़ियां टूट गई। बापू ने छड़ी से खूब मारा और दो दिन तक रोटी नहीं दी। मां चुपचाप देखती रही थी। बापू के सामने बोलने की उसमें हिम्मत न थी ।जब भी विसवा वह मार याद करता है स्वतः ही मुंह से सीत्कार निकल जाती है मानो चोट अभी उसके जख्म पिरा रही है।
आज पूरे पंद्रह साल हो गए ।हर गली हर घर से वह अच्छे प्रकार परिचित है कि किस घर में लड़की सयानी हो रही है और किस घर में लड़के के दाढ़ी मूंछें उग रही है विसवा को सब की खबर रहती है। बिरमा टोले और अहीर टोले में कई रिश्ते तो स्वयं उसके ही करवाए हैं। उन घरों में विसवा की बड़ी आव भगत होती है।
विसवा का हाथ इतना दक्ष है कि मजाल कोई चूड़ी चटक जाए। विसवा पहले हाथ को दबाकर परख कर लेता है।फिर चूड़ियां पहनाता है ।चूड़ियां भी जैसे उसके इशारे पर चलती हैं ।कहीं किवाड़ के पीछे से, कहीं घूंघट की ओट से गोरे गोरे हाथ उसके आगे बढ़ते। विसवा चूड़ियां फैलाता ।पसंद सास या ननद की होती। बहुएं चूड़ियां पहनती। नाजुक नरम कलाइयां सज उठतीं । विसवा एक-एक चूड़ी आशीष की अपनी तरफ से पिरो देता। कोई बड़ी-बूढी तेरह चूड़ियों पर एतराज करती तो विसवा अपनी तरफ से चौदह कर देता। बहूएं चूड़ियां पहनकर साड़ी के पल्लू से थान छूकर माथा नवाती और विसवा का रटा रटाया वाक्य मुंह से निकलता- "ईश्वर तुम्हें खुश रखे खूब फलें फूलों"
इस क्रम में थोड़ा व्यवधान आया था फूलो के आने से। विसवा की शांत झील सी जिंदगी में जैसे कोई कंकर आकर गिर पड़ा हो और हलचल पैदा कर दी हो। सरवतिया लोहार की पत्नी फूलवती नाम के साथ-साथ शक्ल सूरत में भी फूल सी है ।विसवा ने भी सुना है पूरे गांव में चर्चा है जबकि सरबतिया काला भुजंग किसी देव दानव सा है ।अंधेरे में देखकर किसी भी का यमराज का भ्रम होने लगे।
सरबतिया के आगे पीछे भी कोई नहीं था।धौंकनी फूंक फूंक कर चार पैसे इकट्ठे कर लिए। एक झोपड़ी डलवा ली और किसी अनाथाश्रम से फूलवती को ले आया ।वह सबको यही बताता है कि उसकी बाकायदा शादी हुई है ।एक साथ पंद्रह लड़कों की भांवरें पड़ी थी बिल्कुल सरकारी तरीके से ।कोई मंत्री भी आए थे। सब उसको सरकारी फूलो कहते हैं ।गांव के लिए फूलो का व्यक्तित्व बेहद अजनबी था। अतः उत्सुकता बश सभी बहू बेटियां जाकर फूलो को देख आईं थीं उसका भी मन करता की एक बार सरकारी दुल्हन को देखें। चर्चे तो बहुत सुने हैं पर फूलो हर वक्त हाथ भर का घूंघट लगाए रखती। गोरे चिट्टे नरम हाथ आलता लागे छम छम करते पांव ,कमर पर लटकती लंबी चोटी दूर से ही विसवा ने देखी थी।
घर में कोई सास ननंद तो थी ही नहीं ।उस दिन विसवा ने आवाज लगाई"…...उ.....ई....चू......ड़ी ..….."तो फूलो ने इशारे से उसे बुला लिया। विसवा ने सामान का ढेर लगा दिया फूलो ने ढ़ेरों चीजें खरीदीं फिर मनचाहे रंग की चूड़ियां पहनी। इस बीच फूलो बिल्कुल भी नहीं बोली। बस संकेतों से बताती रही।
फूलों के नरम हाथ हाथ में लेते ही विसवा को जैसे करंट लग गया ।सारा शरीर झनझना उठा। पहले कभी भी उसके साथ ऐसा नहीं हुआ था । हड़बड़ी में उसने दो की जगह चार आशीष की चूड़ियां पहना दी। एक खनकती हुई मदिर हंसी उसके कानों में घंटियां सी बजा गई ।फूलो ने पांच का नोट निकालकर चुपचाप गट्ठर पर रख दिया ।विसवा जेब से रेज़गारी निकाल कर गिनने लगा ।फूलो ने इन्कार का संकेत किया। विसवा वह नोट लेकर चला आया। उस दिन उसकी खूब बिक्री हुई। उस पांच के नोट को विसवा बहुत दिन तक संभाल कर रखे रहा।
विसवा जब भी चूड़ियां बेचने निकलता फूलो के घर के सामने से आवाज लगाता अवश्य निकलता। उसकी आंखें किवाड़ों की दरारों के पीछे खड़ी फूलो को देखने का असफल सा प्रयास करती । उसका मन कहता कि किवाड़ के पीछे फूलो झांक रही है। बस इतना सोचते ही उसकी मन सतरंगी घोड़े पर सवार हो हवा से बातें करने लगता।
फूलो को जब जरूरत होती इशारे से बुला लेती। विसवा उत्साह में भरकर उसके सामने सारे सामान का ढेर लगा देता। मन करता अपनी पसंद की एक-एक चीज चुनकर फूलो को दे दे और फिर देख की उसकी अपनी पसंद फूलो पर कितनी फबती है। पर मन की बात मन में ही रह जाती फूलो मनपसंद समान चुन लेती। बस घूंघट की ओट से एक खनकती हंसी सुनाई पड़ती। फूलो आंचल रख चूड़ियों को शीश नवाना ने जानती थी। अनाथों की तरह पली थी। गांव के नियम कानून उसे क्या पता। जितना सरबतिया ने बता दिया था उतना ही उसे मालूम था। सरबतिया ने कहा था की घूंघट लगाकर रहना है। फूलो हाथ भर का घूंघट खींचे रहती है। मोहल्ले की तमाम औरतों कुएं पर पानी भरने जाती पर सरबतिया स्वयं पानी भरकर रख जाता ।फूलो दिन भर घर में अकेली रहती।
सरबतिया जब पानी भरने जाता टोले की औरतें आंचल मुंह में दबा मंद मंद मुस्काती। कोई कोई फुसफुसा कर कह भी देती लो भाई आ गया जोरु का गुलाम या कोई कोए की चोंच में अनार की कली। सरबतिया इन सब बातों को सुनकर भी अनसुना कर देता। चुपचाप पानी भरता रहता। फूलो उस के लिए रोटी पकाती ,घर साफ करती , उसके कपड़े धोती। थका हारा घर लौटता तो बदन दबाती। अगली सुबह फिर दुकान जाते समय गमछे में रोटी और सब्जी बांधकर थमा देती। सरबतिया दुकान खोलता, आग सुलगाता, भट्टी गरमाता और फिर खटपट शुरू हो जाती।
फूलों दिन भर घर में अकेली रहती है तभी विसवा की आवाज सुन किवाड़ों की ओट से झांकने लगती। विसवा का भ्रम विश्वास में बदल रहा था। वह जब भी शहर जाता और नए डिजाइन की चूड़ियां चोटिला, रिवन और गिलट के सफेद पीले जेवर लेकर आता ।सबसे पहले फूलों के घर पहुंचता और फिर गली-गली आवाज लगाता घूमता।
विसवा अपने दिल के आगे मजबूर था। एक अनचाही उमंग उसे खींच कर ले जाती ।उसे पाने की चाह कभी भी विसवा के मन में बलवती न हुई। फूलों एक महकता फूल थी जिसकी खुशबू को दूर से सूंघा जा सकता है। जिसके रूप को आंखों ही आंखों में पिया जाता है। फूल तोड़कर मसले जाने के लिए नहीं होते। तभी तो विसवा बड़े आहिस्ते से फूलो की कलाई पकड़ कर हाथ दबाता और धीरे-धीरे चूड़ियां पहना देता ।जोर से पकड़ने पर उसे भय लगता कहीं कोई पंखुड़ी कुम्हला ना जाए।
पंद्रह दिन बाद विसवा गांव लौटा था ।पिछले दिनों ननिहाल में कोई गमी हो गई थी ।उसे मजबूरन मां को पड़ोसियों के सहारे छोड़कर जाना पड़ा था। पास का पैसा भी समाप्त हो गया था ।जब काम ही नहीं किया तो पैसा कहां से आता। आते ही विसवा अपना गट्ठर उठा और आवाज लगाता फूलों के घर के सामने पहुंच गया।
गट्ठर उतार कर जमीन पर रखा। सारा सामान खोल खोल कर सजाने लगा ।"आज क्या लोगी?" तभी दरवाजे के अंदर से दो गोरे-गोरे हाथ आगे बढ़े। सूनी कलाइयां देख विसवा स्तब्ध रह गया। फूलो मुंह खोले सामने खड़ी थी। ना माथे पर टिकली ना मांग में सिंदूर खाली आंखें उलझे बाल ऐसे रूप की तो विसवा ने कल्पना भी न की थी। उठे हाथ वहीं रुक गए।" रुक क्यों गए विसवा, आज आशीष की चूड़ियां नहीं पहनाओगे?" मुंह में आंचल ठूंस किसी प्रकार अपने रुलाई पर काबू पाती फूलो अंदर की तरफ भाग गई
विसवा को जैसे यकीन ना हुआ। उसके हाथ और पांव को काठ मार गया। इतना कुछ कब और कैसे हो गया उसे पता ही ना चला। बड़ी मुश्किल से उसने गट्ठर बांधा और लड़खड़ाते पैरों से लौट पड़ा। आवाज लगाकर चूड़ी बेचने की शक्ति अब उसमें न थी। फूलो का वैधव्य बार-बार उसकी आंखों में घूम रही थी। विसवा हाट से होकर गुजरा तो करीम काका ने टोका-" इतने दिन कहां रहे बिसवा। यहां तो बहुत कुछ घट गया। आतंकवादियों ने एक दिन निहत्थे लोगों पर गोलियां चला दी और भाग गए। कई घर उजड़ गए। सरबतिया भी मारा गया। बेचारा दुकान को ताला लगा रहा था।"
विसवा की समझ में सब कुछ आ गया। उसके बाद विसवा ने चूड़ी बेचने का धंधा ही बंद कर दिया। मां को लेकर शहर चला गया।
काफी समय निकल गया। फुल्लो अभी एक आस के सहारे जिंदा थी । किवाड़ की ओट से झांक कर देखती रहती है। उसके कान आवाज सुनने को तरस गए थे ।उसे पूरा यकीन था कि एक दिन विसवा लौटेगा फूलो की अभिलाषा भी पूरी हुई। विसवा अपने गांव लौटा था। उसकी पीठ पर चूड़ियों का गट्ठर न था बल्कि हाथ भर का घूंघट काढ़े छम छम करती हुई कोई तरुणी पीछे-पीछे आ रही थी।
फूलो किवाड़ों की ओट से झांक रही थी। तभी कोई पास से कहता हुआ गुजर गया कि विसवा ने शादी कर ली है। मेहरिया को लेकर गांव आया है। फूलो की आंखों से दो बूंद आंसू चूकर सूनी कलाइयों पर गिर पड़े जिन्हें अभी तक आशीष की चूड़ियों का इंतजार था ।अगले दिन सब ने सुना के फूलो फिर नारी आश्रम में चली गई है।
सुधा गोयल
290-ए, कृष्णानगर डा.दत्ता लेन, बुलंदशहर -203001
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