आजकल औरतें
आजकल औरतें
लिख रही हैं कविताएं
अपने अनकहे
दर्द की व्यथाएं
जिसे अकेले ही
झेलती रही
ओंठो ही ओंठो में
सिसकती रहीं
आंसू पलकों में ठहरा लिए
जख्म अपने सहला लिए
बेख़ौफ़ सी अब वे
उन दर्दो को उघाड़ रही है
अपनी यातना की कहानी सुना रही है।
देह के अत्याचार
मानसिक बलात्कर
घर के नाम पर यातना गृह
पूरी जिंदगी झेलती नफरत
कुछ पल भी सुकून के
चुरा नहीं पाईं
सदा गरियाती और
लतियाती रहीं
चरित्रवान कभी नहीं रहीं
शक के दायरे में रहीं
उनकी देह को कोई भी
निगाहों में निरावरण करता रहा
देह देह नहीं
माटी की पुतली रही
कुछ औरतें ढ़ाल रही है
दर्द भरे शब्द
जो यहां वहां बिखरे हैं
जिनके हैं कुछ अर्थ
अब वे आंसू पीकर
जीना नहीं चाहती
बुझते चिरागों में
तेल डालती रही
खाद पानी देती रही।
औरतें सब जानती है
गांव की या शहर की
सुना रहीं हैं अपनी
अनकही कथाएं
अपनी व्यथाएं।
© सुधा गोयल
कृष्णानगर, डा दत्ता लेन बुलंद शहर-२०३००१
राष्ट्र चेतना पत्रिका के सम्पादक मंडल का बहुत बहुत आभार। आपने अपनी पत्रिका में मेरी कविता को स्थान दिया।
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