शनैः शनैः सूर्य भी बढ़ रहा है
मकर का चक्कर चल रहा है
धूप के ताप से गुलदाऊदी का
मुखड़ा गुस्से में झुलस रहा है
बगल में फूला गुलाब भी तो
अपना दिनमान गिन रहा है
अपने पंखुड़ियाँ सुकड़ाकर
सूर्य को टूक -टूक देख रहा है
धरती थोड़ी सी गरमायी है
छोटी चीटी भी बौखलायी है
कस - कर मेरे ही हाथों को
अपने मुख से धर चबायी है
शीत में सहमी धरती पर भी
अब धूल का चन्दन हो रहा है
धूल में सन -सन गौरैया भी
माघ में फागुनी खेल रही है।।
अंशु आँचल सिंह , पूरणियाँ
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