उनके गलियों में जाने कौन सा मज़ा आया था!
भटकते फिरते उनके तलाश में जो यूं दरबदर,
और शाम होते दर्द-ए-आलम दिल पे छाया था!
नशे में मदहोश हुए गुम हुआ ये सारा ज़माना ,
उनके आँखों का जाम जो आँखों से चढ़ाया था!
ढूंढती रही मैं जो उम्रभर ख़ुद को जिसके भीतर,
मालूम पड़ा उसने किसी और को अपनाया था!
अश्कों भरे आँखों को लिए फ़िर चल पड़ी थी प्रज्ञा,
गिरते आंसूओं को घने जुल्फों तले छुपाया था!
शिखा सिंह प्रज्ञा ( लखनऊ , उत्तप्रदेश )
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