एक सामयिक रचना
ओ, बापू जिन बीजों को,
तुम बोकर चले गए ।
उन्हें अंकुरित होने का,
परिवेश न मिल पाया।
हार गयी है दुनिया,
उच्छृंखलता खूब बढ़ी।
ऋषियों-मुनियों का संदेश,
इन्हें न मिल पाया ।
फैली हिंसा की लहरें,
सब आपस में लड़ते ।
बढ़ा उपद्रव इतना,
जीवन जरा न हिल पाया।
कहलाये नंगे फकीर तुम,
बढ़ी नग्नता इतनी।
वस्त्रहीनता बनी समस्या,
रूप न खिल पाया ।
छद्म बस गया रोम-रोम में,
सत्य डूबता जाये ।
कांटों से ही देश भर गया,
फूल न खिल पाया ।
बमबाजी, आतंकी किस्से,
ठौर-ठौर पर दिखते ।
वैमनस्य के भाव बढ़ गये,
दिल ना मिल पाया ।
ओम प्रकाश खरे , जौनपुर
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