आदमी कितना मजबूर है !
ये कैसी उल्फत सफर-ए-जिन्दगी की
यहाँ तो बस नफरतों का सुरूर है,
अपनों से उलझे बेगानों से सुलझे,
इंसान तो बस दिखावे में ही चूर है
मयस्सर नही सुकून पल भर का
निमित्त है साँस लेने की,
रूक जाए तो कौन सम्भाले,
अभी तो चलना बहुत दूर है !
सचमुच,आदमी कितना मजबूर है !
तहजीब-ए-फितरत की दरकार सबसे
लेकिन खुद में सलीको की बिगड़ी दस्तूर है
बसीर-ए-खबर की आस ही नहीं,
अबतक जो मिला महज नकली नूर है !
सचमुच आदमी कितना मजबूर है !
एक ही मंजिल के रास्ते असंख्य,
फिर क्युँ,चढ़ा सबको ऐठन का फितूर है ?
जहाँ से आए हैं फिर वहीं पर जाना है !
सफर-ए-मंजिल अभी बहुत दूर है !
सच मुच आदमी कितना मजबूर है !
योगिनी काजल पाठक
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ReplyDeleteबढ़िया
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