समसामयिक व्यंग
शीर्षक : रजाई में वैक्सीन और किसान आंदोलन
कड़ाके की ठंड थी, और चल रही थी शरीर को छेदनेवाली बर्फीली हवा।इस सप्ताह ओले भी गिरे थे। ऐसे में भला कौन गर्मा-गर्म बिस्तर छोड़ना चाहता है। दुखी आत्मा का यही हाल था। सुबह की नींद टूट जाने के बावजूद वे बिस्तर में घुसे-पडे़ मोबाईल क्रांति में तल्लीन थे। श्रीमती जी मॉर्निंग वॉक का हवाला देते हुए उन्हें कई बार उठाने का असफल प्रयास कर चुकीं थीं। इस बार जब फिर से श्रीमती जी ने रजाई खींचने का प्रयास किया,दुखी आत्मा कुनमुनाते हुए रजाई से ऐसे चिपट गये जैसे बंदरिया अपने बच्चे से चिपट जाती है।
करवट बदलते हुए उन्होंने सोचा,लोग बेकार में ही चीन और पाकिस्तान को अपना दुश्मन समझते हैं।
दुश्मन तो अपने देश में ही बैठे हैं।देश क्या घर में ही बैठे हैं। जाड़े में भी भला कोई रजाई से बाहर निकलता है ?उनका ध्यान योगगुरु की ओर गया।यह भी देश का दुश्मन नंबर वन है। जिस वक्त सारा देश सोया रहना चाहता है,यह उन्हें जगाता फिरता है। इतना ही नहीं, बड़ी साँस ,छोटी साँस की फुंफकार भी मरवाता है।और न जाने क्या-क्या हरकतें करवाता है। प्रधानमंत्री जी भी दुश्मनी के मामले में किसी से कम नहीं हैं।यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि यही देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं।न अपने चैन की नींद सोते हैं और न दूसरों को सोने देते हैं। लोकतंत्र और संविधान के 'रक्षक-गैंग' के कुछ लोग ठीक ही करते हैं कि किसान आंदोलन का समर्थन करने के बहाने इनके मरने की दुआ करते हैं। अठारह-अठारह घंटे काम करने का क्या मतलब ?एक दिन भी छुट्टी नहीं लेने का क्या मतलब?यह तो कामगार-कानून के खिलाफ है ही, लोकतंत्र और संविधान के भी खिलाफ है।जब हमारे यहाँ अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम,दास मलूका कह गये,सबके दाता राम,जैसा सुनहरा नियम है तब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस नियम का पालन करें। ऐसे भी, भारत ही नहीं विश्व भर में कोरोना सीज़न टू का हल्ला मचा है।यह भी आतंकियों की तरह स्टाइल बदल-बदलकर हमला कर रहा है।
इस कंपकंपाती ठंड में मॉर्निंग वॉक के लिए निकलो और कोरोना टाईप टू की गिरफ्त में जकड़ जाओ, तो कौन बचाएगा ? स्वास्थ्य के प्रति इतनी खतरनाक जागरूकता भी ठीक नहीं । जानलेवा कोरोना सर्दी, खांसी,बुखार से ही प्रारंभ होता है। 'देश अनलॉक' हो गया है इसका यह मतलब कहाँ है कि 'कोरोना लॉक' हो गया है? यह तो अभी भी है, और इसकी बिक्री जारी है।इसका डर दिखा-दिखाकर मुद्रा-दोहन अभी भी चल रहा है। जहां तक कोरोना वैक्सीन का सवाल है यह तो अभी-अभी निकला ही है।
अभी तो इसका पूजा-पाठ और उद्घाटन ही चल रहा है।हम जैसे आम लोगों तक 'फ्री वाला' वैक्सीन पहुँचते-पहुँचते सालों लग जाएंगे। तब-तक मेरे जैसों का राम नाम सत्य न हो जाए ? इस बात की क्या गारंटी है कि वैक्सीन लगाने से कोरोना वायरस का डर शत-प्रतिशत समाप्त हो ही जाएगा ?
या इसे लगाने से इम्यूनिटी पावर इतना हाई हो जाएगा कि लोग एवरेस्ट की चोटी पर भी बिना आॅक्सीजन सिलेंडर के चढ़ सकेंगे। मैंने सुना है एक माननीय नेताश्री कह रहे थे,इस वैक्सीन में कमल छाप जीवाणु मिले हुए हैं।
इसे जो भी लगवाएगा राष्ट्रवादी पार्टी का भक्त हो जाएगा।शायद इसीलिए वे अपनी फैक्ट्री में अलग से कोरोना वैक्सीन बनवाएंगे और वही वैक्सीन अपने समर्थकों को लगवाएंगे। खुराफाती सूत्रों का यह भी कहना है कि इस वैक्सीन में जनसंख्या नियंत्रण के जीवाणु मिले हो सकते हैं ताकि संसद में जनसंख्या नियंत्रण कानून लाए बिना भी देश की बहुत बड़ी समस्या का समाधान हो जाए। इसलिए धर्मविशेष के वोटरों को सावधान रहना चाहिए !
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इस वैक्सीन के कंपोजिशन में थोड़ा हेर-फेर कर टुकड़े-टुकड़े गैंग की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है ?क्या देश के वैज्ञानिक भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए भी वैक्सीन का निर्माण कर सकते हैं।यह जो कई सप्ताह से बिरियानी उड़ाओ, पकौड़े खाओ,साथ ही हुक्का पीयो,मसाज करवाओ छाप हाईटेक किसान आंदोलन चल रहा है!क्या इस आंदोलन को समाप्त करनेवाली कोई वैक्सीन नहीं है केंद्र सरकार के पास ? पंजाब और हरियाणा के किसानों और उनके नेताओं की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी, छः महीने का राशन-पानी लेकर दिल्ली घेरे बैठे हैं।पैदल मार्च, साइकिल मार्च, मोटरसाइकिल मार्च का जमाना गया। अब तो हमारे किसान महंगी-महंगी गाड़ियोंवाली कार मार्च और ट्रैक्टर मार्च निकाला रहे हैं।तब फिर सवाल यह पैदा होता है कि वे असली किसान हैं कि नहीं ,जो पिछले कई दशकों से बैंक का पच्चीस-पचास हजार रुपयों का मामूली कर्ज भी न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं ?
इस आंदोलन ने कम से कम यह तो सिद्ध कर ही दिया है कि भारत के किसान न तो भुक्खड़ हैं, और न हीं फक्कड़। और न हीं, कमजोर और लाचार।इनकी सहायता अपनी सरकार करे या न करे, विदेश में ऐसे बहुत सारे बैठे हुए हैं जो इनकी सहायता कर सकते हैं। ये मजबूत इतने हैं कि सरकार की ईंट से ईंट बजा उसे मजबूर कर सकते हैं। सालों-साल बिना अन्न उगाए देश का अन्नदाता बने रह सकते हैं।
तभी श्रीमती जी ने उनकी रजाई को एकबार फिर से खींचा और कहा,"अब उठ भी जाओ, सुबह के दस बज गए हैं,चाय भी बनकर तैयार है, कहीं ठंढी न हो जाए।"
दुःखी आत्मा ने सोचा,बिस्तर पर पड़े-पड़े ही चाय से निपट लिया जाए।मगर श्रीमती जी इस बात के लिए तैयार नहीं हुईं।झख मारकर दुःखी आत्मा ने अपने आप को समझाया,जब केंद्रीय मंत्री जैसे पावरफुल व्यक्ति अपनी जिद छोड़ कर आंदोलनकारी किसानों का लंगर चख सकते हैं तब मेरी क्या औकात ? बेहतर यही होगा कि मैं श्रीमती जी की बात मान लूं।
लेखक : अजय कुमार प्रजापति , ( जमशेदपुर , झारखंड )
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