ग़ज़ल
क्या कहें सब चादरों में दाग़ निकला है
है कहीं गिरगिट, कहीं तो नाग निकला है
हाथ जोड़े जब खड़े थे बेसुरे सब थे
मुट्ठियाँ जो तान दी तो राग निकला है
शख़्स वो ज़ाहिर है कोई देवता होगा
कोठरी काजल की थी बेदाग़ निकला है
टिक नहीं पाया बग़ावत की हवाओं में
ये किला साबुन का जैसे झाग निकला है
हड्डियों का एक ढांचा भर बचा उसको
हर समय बेरंग उत्सव फाग निकला है
ब्रह्मदेव बन्धु , मुंगेर ( बिहार )
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