स्त्री होने का सम्मान
आज बस उसकी सांसे ही नहीं रुकी
इस कलम की धार भी रुक सी गई है
क्या लिखूं, कैसे लिखूं ?
जैसे उसकी हड्डियों की तरह ही
इसकी नींव भी टूट सी गई है !
आज उस ईश्वर से पूछूंगी,
स्त्री की काया, पुरुष का पुरुषत्व
जब तूने ही रचा है
हे ईश्वर,
फिर हर बार लज्जित होती
औरत की स्मिता,
सिद्ध होता पुरुष का पौरुष
तुझे कैसे जचा है ?
हे ईश्वर,
जो तू सच में है विद्यमान
तो क्यों नहीं बनता,
हर द्रोपती का श्याम ?
वरना छीन ले सृष्टि से
स्त्री होने का सम्मान !
संपदा बरनवाल ( पटना, बिहार )
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