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भगत सिंह
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Sunday, January 10, 2021

राजमंगल पाण्डेय ( जमशेदपुर, झारखण्ड ) : आलेख - विश्व हिन्दी दिवस पर कुछ मेरे अनुभव


आज 10 दिसम्बर 2021,

विश्व हिन्दी दिवस का दिन !  लेकिन फिर होता क्या है ,वही चाहे माता-पिता हों या शिक्षक या उनके बच्चे सबके मन में अंग्रेजी की ही धारा बहती रहती है तो फ़िर ऐसा छल-प्रपंच  क्यों  ?  बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों में प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाने की एक परम्परा सी बन गयी है लेकिन लोगों के मन-प्राणों में तो अंग्रेजी बसी हुई है। प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस पर लच्छेदार भाषण दे दिये जाते हैं और यह  महज़ औपचारिकता पूरी करके फिर अंग्रेजी भाषा के पिछलग्गू बने रहेंगे। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के बिना हमारी शिक्षा-दीक्षा सबकुछ अधूरी है। इसके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं।  यह अधूरी ,अविकसित हिन्दी भाषा  जिसे वे लोग बोलते हैं जो आज की रंगीन सभ्यता से बाहर निकाले गये इस देश के हाशिये पर कर दिये गये हों। अपने ही  देश में रहकर ऐसा सोचना आत्मग्लानि से भर देता है। 

 क्या हिन्दी अब भी 100 साल पहले की पिटी पिटाई रास्ते पर चलने वाली हिन्दी है, लेकिन जब हिन्दी साहित्य के विशाल स्वरूप को देखते हैं तब यह बात झूठ, अवैचारिक, तर्कहीन लगती है। हिन्दी की समृद्धि स्वयं सिद्ध है।
        आज हिन्दी की जनशक्ति विशाल और सशक्त है। यह भाषा भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में बोली या समझी जाती है। इस भाषा में बनने वाली फिल्में इस देश में ही नहीं अपितु विश्व में भी देखी, समझी जाती है। तकनीकी से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तंत्र तक हिन्दी की अबाध गति देखी जा सकती है। आज भले ही अंग्रेजी में अपनी बात  बोलकर अपने को कुछ लोग विकसित सभ्यता के विकसित मानव कहें लेकिन सच तो यह है कि अंग्रेजी बोलने और समझने वालों की संख्या आज भी कम है। चूँकि मैं अपनी जीविका चलाने के लिए अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य पढ़ाता हूँ इसीलिए मैं ऐसे ऐसे अनुभवों से गुज़रा हूँ कि मुझे आश्चर्य भरा  दुःख होता है । एक ऐसी युवा पीढ़ी सामने आती है जो अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढाई-लिखाई तो कर रही है लेकिन इसकी न तो अंग्रेजी ही मजबूत है और न ही हिन्दी । 

        हिन्दी तो खैर इनके द्वारा मन से उतार दी गई है। जब मैं अपने विद्यार्थियों को अंग्रेजी में कुछ बोलने  के लिए कहता हूँ तो वे मेरे आदेश का पालन करते हुए बड़ी स्टाइल के साथ अंग्रेजी में  बोलना शुरू करते हैं लेकिन कुछ आगे चलकर  फ़िर रुक जाते हैं और मुझसे कोई कोई हिन्दी शब्द का अंग्रेजी शब्द पूछने लग जाते हैं। ऐसी स्थिति है कि त्रिशंकु की भाँति आज की अंग्रेजी पीढ़ी अधर में लटकी हुई है। सच तो यह है कि हिन्दी भाषा की मजबूती ही अंग्रेजी भाषा की भी मजबूती है। मैंने हिन्दी साहित्य के सुविख्यात साहित्यकारों की जीवनियाँ पढ़ी हैं और मैंने अनुभव किया  है कि ये अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन अपना वर्चस्व दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपने ज्ञान को और समृद्ध बनाने के लिए किया करते थे। यही कारण है कि इनका हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर अधिकार था। 

        हिन्दी के कई ऐसे विख्यात साहित्यकार हुए जो हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे। जैसे हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय, महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त, निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई गोविन्द मिश्र , डाॅ रामविलास शर्मा, नेमीचंद्र जैन, हरिवंश राय बच्चन, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, उषा प्रियंवदा श्री कान्त वर्मा,अशोक वाजपेयी  कैलाश वाजपेयी  इत्यादि अनेक और नाम हैं जो अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं पर अपना अधिकार रहा , इसीलिए इनका साहित्य-संसार भी बहुत विशाल ।
मेरे कहने का यही आशय है कि अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य का ज्ञान अपनी भाषा और साहित्य को और समृद्ध बनाने के लिए किया जाना चाहिए न कि दूसरों पर अंग्रेजी का रौब दिखाने के लिए या किसी मानसिक गुलामी से प्रेरित होकर। यहाँ मैं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का उदाहरण रखना चाहूँगा जिन्होंने अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य पर अधिकार रखते हुए अपनी मातृभाषा बांग्ला में ही साहित्यिक कृतियों की रचना की क्योंकि हम कितना भी अंग्रेजी बोल, लिख और पढ़ लें दर्द का अनुभव तो अपनी ही भाषा में हो सकता है। 

        निस्संदेह महाकवि निराला  की कविता ' सखि, वसंत आया ' और  William wordsworth की कविता ' Lines written in Early Spring " में भावगत और परिवेशगत बहुत अंतर है । महाकवि निराला जी की कविता 'सखि, बसंत आया' को पढ़ने पर जो भावगत छवि उभरेगी वह सीधे हमारे  हृदय  में उतर आयेगी और मन को मदमस्त कर देगी लेकिन सम्भवतः William wordsworth की कविता का वह भाव और संवेदना हमें बाँधने में सफल नहीं हो पाये क्योंकि इंगलैंड के वसंत के परिवेश और संवेदना हमारे जिये गये परिवेश और संवेदना से सर्वथा भिन्न है ।

        ऐसी बात नहीं कि अंग्रेजी भाषा के कवियों की कविताएँ या उनकी अन्य रचनाएँ हमें प्रभावित नहीं करेंगी,फ़िर भी अंग्रेजी- कवि की वसंत पर आधारित कविता में  व्यक्त  परिवेश और भाव की संवेदनाओं में बहुत भिन्नता  होगी । इस तथ्य को हम नकार नहीं सकते। कुछ वर्ष पहले अंग्रेजी माध्यम के ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों को शेक्सपीयर की नाट्यकृति ' मैकबेथ ' पढ़ा रहा था। इसी बीच किसी विद्यार्थी ने मुझसे पूछा, 'सर,आप को हिन्दी कैसी लगती है? मुझे तो अच्छी नहीं लगती।" उसके साथ साथ और विद्यार्थियों ने भी ऐसा ही कहा। मैं उसके अचानक पूछे गए सवाल पर अवाक् रह गया, फ़िर मैंने गम्भीर होकर कहा, " हिन्दी मेरे दिल की भाषा है। यह मेरी माँ है। यह तो मेरी सबसे प्रिय भाषा है। जब तुम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाते-पढ़ाते थक जाता हूँ तो अंत में इसी माँ की गोद में आकर मीठी नींद लेता हूँ। " मेरे इस जवाब को सुनकर सभी विद्यार्थी  सन्न रह गये। उन्होंने  सोचा होगा कि मैं अंग्रेजी साहित्य और ग्रामर पढ़ाता हूँ तो अंग्रेजी का ही पक्ष लूँगा लेकिन बात ऐसी नहीं। अंग्रेजी  सिर्फ़ मेरी जीविका का साधन है लेकिन मेरे मन-प्राणों की अपनी भाषा तो हिन्दी ही है। हिन्दी की कविताएँ, कहानियाँ तथा निबंध सीधे हमारे दिल में उरते हैं क्योंकि जिस परिवेश और संवेदना को लेकर रचनाएँ लिखी जाती हैं वे सभी हमारे दिल की दीवारों से टकराती हुई गुजरती हैं। ये कथानक, कविताओं के भाव तथा निबंधों के विचार हमारे जिये गये क्षणों की कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं । हम शेक्सपीयर, इलियट, वर्डस्वर्थ, थाॅमस हार्डी, थाॅमस ग्रे, शेली, जार्ज बर्नार्ड साॅ इत्यादि की रचनाओं का आनंद ले तो सकते हैं लेकिन दिल की धड़कनों का आरामगाह तो अपनी ही भाषा है।

         मैं जिस अंग्रेजी पीढ़ी की बात कर रहा हूँ उसकी अपनी जड़ बहुत ही कमज़ोर है । झूठी शान में उपजी एक मानसिक गुलामी है जिसने  इस पीढ़ी को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा कर दिया  है जिसे न तो अंग्रेजी ठीक से आती है और हिन्दी तो आती ही नहीं। अगर अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अंग्रेजी माध्यम के अनेक ऐसे विद्यार्थी हैं जो हिन्दी का नाम लेते हैं नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। उन्हें हिन्दी पढ़ने से परहेज है। अगर हिन्दी को पाठ्यक्रम से ही हटा दिया जाये तो ये विद्यार्थी इतने खुश होंगे कि वैसी खुशी उनके चेहरे पर देखी न गयी हो। अफसोस कि इन विद्यार्थियों के रहनुमा खुद अंग्रेजी के रंग में रंगते जा रहे हैं। 

        यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम कम से कम घर पर आज के विद्यार्थियों में हिन्दी का परिवेश बनाये रखें ताकि जाने अनजाने उनके  मन-मस्तिष्क में हिन्दी के प्रति लगाव बना रहे। ऐसा नहीं कि हिन्दी की तरफ इनके झुकाव होने से अंग्रेजी कमजोर होती जायेगी बल्कि होता ठीक इसके विपरीत है। इससे दोनों भाषाओं के प्रति सम्मान और गहरा हो जाता है।
         
        मैंने अपने जीवनकाल में यह देखा ही नहीं बल्कि अनुभव किया है कि हिन्दी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों की अंग्रेजी का ग्रामर अंग्रेजी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों के ग्रामर से कम  मजबूत नहीं होता।

        मैंने यह भी अनुभव किया है कि जिसमें अंग्रेजी ग्रामर सीखने की लगन होती है उसमें हिन्दी या अन्य भाषाओं को सीखने की भी लगन होती है। हिन्दी एक सर्वशक्तिमान भाषा है। इसका साहित्य पूरी तरह समृद्ध है। इसके प्रति लोगों की वितृष्णा, अपमान या इसे कमजोर समझना उस व्यक्ति की बचकानी सोच, उसकी संकीर्ण मानसिकता और अंग्रेजी के प्रति घटिया मोह ही कहा जायेगा।

राजमंगल पाण्डेय ( जमशेदपुर, झारखण्ड )


सूचना : 

यह रचना राष्ट्र चेतना पत्रिका के 06 अंक में भी प्रकाशित की गई है ।
यह अंक  दिनांक 11 जनवरी 2021 , सोमवार को प्रकाशित हुआ था ।


धन्यवाद
सूरज सिंह राजपूत
संपादक राष्ट्र चेतना पत्रिका

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