कहीं खो गई है वो , बचाने के क्रम में !
संस्कृति, संस्कृति जो लज्जित है अपने रक्षकों के कृत्य से कृत्य जो समाज पर एक धब्बा . . .।
शुरुआत कहां से करूं विडंबना है , क्यों न उस घटना से ही करूं जिस घटना ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया, पूजा विद्या की देवी मां शारदे की थी, मन श्रद्धा से ओतप्रोत था बस स्नान के उपरांत मैं अपने घर में माता की उपासना करने ही जा रहा था तब तक मेरे कानों में कुछ जोड़ों की आवाज सुनाई दी लोग “ उसे संगीत कह रहे थे संगीत जिसे सुनकर मैं लज्जित था अपने ही घर में परिवार के प्रत्येक सदस्य अपने कमरे में जाकर बैठ गए “
उस दिन कार्यालय न जाने के कारण मैं पूरा दिन स्वयं के साथ व्यतीत करने का निर्णय लिया बस मैं चल दिया सड़क की ओर, वह जोड़ों की आवाज जिसे लोग गाना कह रहे थे वह अभद्रता की कोई पराकाष्ठा थी, लज्जित हो रही थी मर्यादा स्वयं के सामने कहीं दुबक कर बैठे थे समाज के सभी शिक्षित लोग किसी ने विरोध करने की हिम्मत तक न दिखाई उन पढ़े लिखे लोगों में सम्मिलित था मैं भी और यह ग्लानि मुझे अंदर ही अंदर कुरेद रही है ।
विद्या की देवी मां शारदे की उपासना करने का न जाने यह कौन सा अनोखा ढंग है ?
उसी सड़क से गुजर रही थी कुछ बच्चियां कुछ बहने कुछ औरतें जो किसी की मां थी किसी की बेटी थी किसी की बहन थी जो सर नीचे किए चुपचाप गुजर गई उस बाजार से जहां अभद्रता का यह नाच हो रहा था शायद किसी ने महसूस नहीं किया कि हम देवी की उपासना कर रहे हैं करते भी कैसे ?
उपासकों ने उपासना की विधि जो बदल रखी है , कुछ मदिरा में लिप्त थे, कुछ मदिरा ला रहे थे, कुछ मदिरा पी रहे थे, कुछ मदिरा पिला रहे थे पूजा पंडाल बनाकर जिन लोगों ने संस्कृति को बचाने की कोशिश की थी वहां कई प्रश्न खड़े थे , अपने अस्तित्व के तलाश में ।
क्या वह संस्कृति बचा रहे थे या संस्कृति को गंवा रहे थे ?
दृश्य यहीं पर नहीं ठहरा जब माता को विदाई दी जा रही थी तो लोग सड़कों पर गुलाल उड़ा रहे थे अभद्र भरे शब्द चिल्ला रहे थे न जाने वह क्या जता रहे थे माहौल गम का था वह किस बात का जश्न मना रहे थे, हां प्रशासन भी था पर कार्य कर रहा था या नहीं यह वही जाने ?
कपड़े फाड़ कर यू सड़कों पर नाचना न जाने कौन सी संस्कृति की धरोहर है ?
मेरे समझ से परे है वह दृश्य जहां माता की मूर्ति किसी वाहन पर कहीं दूर खड़ी दिखाई दे रही थी और धुआं, पानी छोड़ने वाली एक वाहन लोग इसे डीजे सेट कहते हैं, वहां रौनक थी लोग नाच रहे थे उत्सव मना रहे थे ।
क्या हम संस्कृति को बचा रहे थे या संस्कृति को गंवा रहे थे ।
हां, कहीं खो गई है वो , बचाने के क्रम में ।
हां, संस्कृति के रक्षक आज भक्षक बन गए हैं ।
हां, संस्कृति कराह रही है आज अपने रक्षकों के बीच ।
हां, सभ्यता लज्जित है आज अपने रक्षकों के मध्य हां संस्कृति व सभ्यता आज अपना अस्तित्व खोने से डर रही हैं ।
हमें बदलनी होगी अपनी शैली अपनी आज कि उपासना विधि वरना बदल जाएगी सभ्यता व संस्कृति की परिभाषा ।
जय मां माटी , जय हिंद , जय भारत
सूरज सिंह राजपूत , जमशेदपुर, झारखण्ड
सूचना :
यह रचना राष्ट्र चेतना पत्रिका के 06 अंक में भी प्रकाशित की गई है ।
यह अंक दिनांक 11 जनवरी 2021 , सोमवार को प्रकाशित हुआ था ।
धन्यवाद
सूरज सिंह राजपूत
संपादक राष्ट्र चेतना पत्रिका
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