आलेख : युवा-शक्ति और स्वामी विवेकानंद
एक युवा ऋषि, बुद्ध पुरुष, तत्वद्रष्टा जिसने सन् 1893 ई• में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित एक विश्व धर्म सम्मेलन में अपने वेदान्तीय ज्ञान-प्रकाश से वहाँ उपस्थित बड़े-बड़े विद्वानों,धर्म गुरुओं तथा वैज्ञानिकों को चमत्कृत कर दिया और भारत की गौरव-गरिमा को पुनः स्थापित किया, वह महान् दार्शनिक और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद जी थे। हाँ, वही युवा संन्यासी जिसने अमेरिका ही नहीं अपितु पूरे विश्व को अपना अनुचर बना लिया। स्वामी विवेकानंद जी की तस्वीर देखते ही मानवीय सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत फूट पड़ता है।
युवा वर्ग अप्रतिम शक्ति का पुंज है। देश का स्वर्णिम भविष्य हमारे युवाओं के कंधों पर है। उनकी सकारात्मक सोच और कार्य हमारे गौरवशाली अतीत को वर्तमान की पृष्ठभूमि पर जीवन्त रूप प्रदान कर सकते हैं इस बात को हमारे युवा प्रबुद्ध वेदान्तीय द्रष्टा, बुद्ध पुरुष, संन्यासी स्वामी विवेकानंद अच्छी तरह जानते थे। यही कारण है कि उनकी अन्तर्दृष्टि सदैव युवाओं पर केन्द्रित रही। वे कहा करते थे कि युवाओं के भीतर ऊर्जा का असीम भण्डार है, आवश्यकता है उनके भीतर मानवीय सृजनात्मक बोध को जागृत करने की ताकि उनकी ऊर्जा अमानवीय कार्यों में नष्ट न हो जाये।
स्वामी विवेकानंद जी ने कठोपनिषद् की पँक्तियों में से एक पँक्ति की उद्घोषणा की और यह उद्घोषणा " उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत " हमारी युवा शक्ति की तरफ़ संकेत करती है। स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि युवाओं की नकारात्मक और विध्वंसात्मक शक्ति को भारतीय वैदिक संस्कृति से प्रेरित करके उनकी उस ऊर्जा को आर्य-संस्कृति की सृजनात्मकता में प्रयुक्त किया जा सकता।
आज युवा वर्ग बहुत सी सृजनात्मक सम्भावनाओं को अपने में समाहित करके किसी भी कार्य को व्यावहारिक क्षेत्र में करने के लिए तत्पर है लेकिन सात्विक ज्ञान के अभाव में वही ऊर्जा विनाश का कारण बन सकती है इसीलिए युवा वर्ग की दृष्टि को सार्थक और सम्पूर्ण राष्ट्र के कल्याण के लिए उपादेय बनाना अत्यावश्यक है। अप्रतिम ऊर्जा से भरे-पूरे युवाओं के व्यक्तित्व के लिए एक ऐसे निर्देशक की आवश्यकता है जो सम्पूर्ण वेदान्तीय अनुभूति से अनुप्राणित हो और वह युवाओं की अप्रतिम ऊर्जा को मानवीय लोक कल्याण के लिए प्रेरित करे।
स्वामी विवेकानंद जी का कहना था कि देश की प्रगति सिर्फ़ भौतिक समृद्धि पर आधारित नहीं होना चाहिए बल्कि आध्यात्मिक चिंतन पर होना अत्यावश्यक है। बिना आध्यात्मिक ज्ञान और उसके अनुसार जीने की कला के बिना युवाओं में आक्रोश और नैराश्य भरता जायेगा। यदि स्वामी विवेकानंद जी के विचारों पर ध्यान दें तो हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि अध्यात्म के बिना युवाओं में आत्म-हीनता और आत्म-हत्या की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है। भले ही वोकेशनल शिक्षा में हमारे आज का युवा वर्ग काफी उन्नतिशील रहा हो लेकिन उसे जीवन जीने की दृष्टि नहीं मिल पायी है । परिणामतः आत्म हत्या जैसे घृणित कार्यों की ओर आज का युवा वर्ग बढ़ता जा रहा है।
यहाँ युवाओं के प्रति स्वामी विवेकानंद जी की वाणी बहुत ही उम्दा, सार्थक और सटीक है। स्वामी जी बराबर इस बात पर जोर देते थे कि आधुनिक शिक्षा बिना आध्यात्मिक ज्ञान के स्वस्थ जीवन और दृष्टि प्रदान करने में पूरी तरह सफल नहीं हो सकती। हम अपने जीवन और राष्ट्र को तभी स्वस्थ और प्रगतिशील बना सकते हैं जब आज का युवा वर्ग आध्यात्मिक दृष्टि से प्रेरित होगा।
आज स्वामी विवेकानंद जी के युवाओं को दिये संदेश बहुत ही प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा था कि गीता पढ़ने के वजाय युवाओं को फुटबॉल खेलना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जब शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तब तत्व ज्ञान की बातें व्यर्थ है।
राष्ट्र की धमनियों में आर्य मनीषियों तथा ऋषियों का रक्त-प्रवाह होना चाहिए ताकि स्वस्थ राष्ट्र और स्वस्थ युवा पीढ़ी खड़ी हो सके तथा सम्पूर्ण मानवता पल्लवित और पुष्पित होती है रहे।
राजमंगल पाण्डेय ( जमशेदपुर, झारखण्ड )
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