गीत
भारतमाता के मस्तक का, जैसे सुरभित चन्दन है।
दिव्य-स्वरूपा,मंजुल-रूपा,हिंदी पुनि-पुनि वंदन है।।
भाषाओं के पुष्कर का यह,एक सरोरुह स्वर्णिम है।
सम्प्रेषण के नीलगगन का,हिंदी दिनमणि अरुणिम है।
यह सुरभित कविता कानन का, विटप प्रसूनित पर्णिम है ।
अर्थपताका,ज्ञानशलाका, जग में सबसे तरुणिम है।
चिंतन का साकेत अपरिमित, हिंदी रघुकुलनंदन है।।
काव्य पंथ पर नीम छाँव सम ,शीतल अरु मनभावन है।
हिंदी जैसे सुरसरिता का, शत सहस्र अवगाहन है।
भाव यज्ञ में स्रुवा सरिस यह,मन्त्रपूत अति पावन है।
भाषा के बारहमासे में,हिंदी रिमझिम सावन है।
शब्दाश्वों से परम सुसज्जित,यह अनिरुद्धा स्यन्दन है।।
देवों की भाषा की तनया , सबको देती त्राण हले!
धारे जनहित का यह वल्कल,विभ्रम अरिदल त्वरित दले।
अपने संकल्पों से ललिते!नहीं कभी भी किंतु टले।
अन्य सभी बहनों को नित ये,ले कर अपने संग चले।
दिल्ली से आगे बढ़ कर यह,पहुँची पेरिस लन्दन है।।
मेहा मिश्रा , जमशेदपुर , झारखण्ड
सूचना :
यह रचना राष्ट्र चेतना पत्रिका के 06 अंक में भी प्रकाशित की गई है ।
यह अंक दिनांक 11 जनवरी 2021 , सोमवार को प्रकाशित हुआ था ।
धन्यवाद
सूरज सिंह राजपूत
संपादक राष्ट्र चेतना पत्रिका
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