आलेख - प्रकृति से साहचर्य रखना आज की आवश्यकता है
प्रकृति और मनुष्य
का अन्योन्याश्रित मधुर संबंध सृष्टि के आरम्भ से ही है तभी तो आंग्ल कवि वर्डस वर्थ
प्रकृति की गोद को ही जीवन का परम सुख मानते हैं। हम भारतवासी
प्राचीन काल से ही प्रकृति को देव रूप मानकर उसकी पूजा करते आये हैं। वेदों,उपनिषदों,पुराणों,ब्राह्मण
ग्रन्थों में प्रकृति की उपासना के प्रचुर साक्ष्य उपलब्ध हैं। कवि रविंद्र नाथ टैगोर
का कथन है कि हमारी प्राचीन संस्कृति मात्र
आर्थिक विकास हेतु नही थी बल्कि हम जीव मात्र की सुख सुविधा के लिए भी सोंचते थे
। ऋग्वेद में दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करने के लिये निर्देशित किया गया है जैसा
हम अपने लिये चाहते हैं-
संगच्छध्वं सं वद्ध्वं ,वो मनासि जानताम
देवभागम यथा पूर्वे ,सं जनाना उपासते
जब तक प्रकृति और पुरूष के बीच सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व
रहा, वह दुग्ध दोहन हेतु पन्हाई गौ सदृश समस्त वनस्पतियां उत्पन्न करती रही और जीवों
को धारण करती रही परंतु भोग वादी वृत्तियों के वशीभूत होकर जब उसका निर्ममतापूर्वक
दोहन आरम्भ हुआ वहीं से पर्यावरण संकट आरम्भ हो गया।
आज वैश्विक तापमान
में वृद्धि के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है,ग्लेशियर पिघल रहे हैं, ऋतु चक्र
में परिवर्तन हो रहा है,वाहनों के अंधाधुंध उपयोग से उत्सर्जित गैस,ऊर्जा तथा जल का
संरक्षण न करने,एसी फ्रिज से निकलने वाली हानिकारक गैस उद्योगों से निकलने वाला रासायनिक
अपशिष्ट पदार्थ के नदियों तथा तालाबों में डाले जाने से जल दूषित हो रहा है, फलस्वरूप अकाल, अतिवृष्टि, भूकम्प अनावृष्टि, भूस्खलन, नई
नई बीमारियां जैसी समस्या आज आम बात हो गयी
है। ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी के रक्षा
कवच के रूप में विद्यमान ओजोन परत में छिद्र हो गया है और सूर्य की पैरा बैंगनी किरणें
धरती पर जाकर विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण बन रही है।
बढ़ता हुआ पर्यावरण
संकट आज वैश्विक स्तर पर आपदा का रूप धारण करता जा रहा है। और इस आपदा को दूर करने
के लिए विश्व स्तर पर सभी देश चिन्तित है और इस भयंकर त्रासदी को दूर करने के लिए विश्व
स्तर पर पांच जून को पर्यावरण दिवस मना करके इस संकट से बचाव के उपाय खोजे जाते है।
इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में एक सप्ताह तक एक अभियान के रुप मे इस
कार्यक्रम का आयोजन चीन कर रहा है इस दिशा में
संयुक्त राष्ट्र ने नए पौधे लगाने , वायु को दूषित करने वाले उपकरणों का कम
से कम प्रयोग करने, रसायन युक्त रंगों का प्रयोग न करने, खाद्य पदार्थो के कचरे के
निपटान की व्यवस्था करने , ऊर्जा का संरक्षण करने तथा प्लास्टिक व पॉलीथिन का प्रयोग
न करने का सुझाव दिया है।
भारत वर्ष में पर्यावरण
के प्रति संजीदगी सृष्टिकाल से ही विद्यमान है । भारतीय मनीषी प्रकृति के उपासक रहे
है। महिलाएँ विभिन्न अवसरों पर वृक्षों, वनस्पतियों , नदियों, जलस्रोतों का पूजन कर
उत्सव के रूप में मनाती आ रही है। पीपल, नीम, आवंला, बरगद, गूलर, महुवा, बेल तुलसी
इत्यादि में धार्मिक दृष्टि से देवत्व का आरोपण इनके संरक्षण को इंगित करता है। गंगा
और अन्य नदियों को माँ का स्थान देकर उनका
पूजन अर्चन करना उन्हें दूषित न करने का संदेश
देता है। भारत का धर्म, दर्शन,रीति रिवाज एवं त्यौहार प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने
के लिये ही हैं। महान अशोक द्वारा मनुष्य व पशु पक्षियों की सुविधा व आराम के लिये
सड़क के दोनो ओर बरगद व आम के वृक्ष लगवाना तथा मध्य काल में भवनों के आसपास वृक्ष लगवाना
अनिवार्य समझा जाता था शासकों द्वारा बिजौर, निशात, चश्माशाही, शालीमार आदि बाग लगाना
उनका पर्यावरण के प्रति उनका प्रेम प्रदर्शित करता है ।
प्रकृति और स्त्री
का सदैव से ही जज्बाती रिश्ता रहा है उन्होंने
इसको सुरक्षित रखने के लिए आंदोलन भी चलाये और आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राणों की आहुति
भी दी। ऐसी ही स्त्रियां राजस्थान के खेजड़ली गाँव की थी जिन्होंने इमरती देवी के नेतृत्व
में वृक्षों को काटने का विरोध किया परंतु इसमे सफल न होने पर वह अपनी तीन बेटियों
व अन्य स्त्री पुरुषों सहित वृक्षों से लिपट
गयी जिसमे कुल 363 लोगों ने वृक्षों के साथ कटकर अपने जीवन का उत्सर्ग किया । उसके
बाद जोधपुर के राजा ने पेड़ो की कटाई रोक दी। 26 मार्च 1974 चमोली जिले में गौरादेवी की अगुवाई में तथा 30 मई 1977 को अदवाणी
गाँव मे बचनीदेवी ने पेड़ो से चिपककर कटने से बचाया। 1983 में कर्नाटक के उत्तरी कन्नड़
क्षेत्र से आरम्भ होने वाले 38 दिनों तक चलने वाले *अप्पिको आंदोलन* के अंतर्गत पेड़ों
को रक्षा सूत्र बांधकर व गले लगाकर उनकी सुरक्षा महिलाओं ने की।
प्रकृति को सुरक्षित
रखने की दिशा में महिलाओं द्वारा किये गए प्रयासों की लंबी सूची है ,जिनमें पर्यावरण
विद वंदना शिवा,मेधा पाटेकर ,मेनका गांधी,रागिनी अमला रुइया का नाम महत्वपूर्ण है।
मुम्बई की अमला रुइया ने चेरिटेबल ट्रष्ट बनाकर राजस्थान के सर्वाधिक सूखा प्रभावित
सौ गांवों में जल संचयन की स्थायी व्यवस्था की 200 से अधिक चेक डैम बनाये गए और लगभग
दो लाख लोग लाभान्वित हुए ।
प्रकृति के प्रति
महिलाओं की संवेदना से दृष्टिगत होते हुए राष्ट्रीय वन नीति 1988 में उन्हें सहभागिता
प्रदान हुई । आज पर्यावरण संकट विस्फोटक स्थिति में है । ऐसे चुनौतीपूर्ण समय मे हर
व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति सचेत होने की आवश्यकता है। बच्चों में ऐसे संस्कार विकसित
करने होंगे कि वे अपनी दिनचर्या में प्रकृति से प्राप्त साधनों का सीमित उपयोग करते
हुए प्रकृति से संतुलन स्थापित कर सके। बालकों की प्रथम शिक्षिका माँ होती है अतः इस
क्षेत्र में महिलाएं बेहतर भूमिका निभा सकती है । वह महत्वपूर्ण दिवसों पर पौधे लगाने
के लिए प्रेरित कर सकती है। घर की खाली जगह पर किचन गार्डन बना सकती है । घर मे निकलने
वाले हरी सब्जी व चाय की पत्ती से जैविक खाद बनाकर किचन गार्डन में प्रयोग कर सकती
है। आर ओ से निकलने वाले वेस्ट पानी का किचन गार्डन व बर्तन धुलने में प्रयोग करके
जल संरक्षण किया जा सकता है । प्लास्टिक उत्पादों और पॉलीथीन का उपयोग बन्द करके कपड़ो
व जूट के थैलों का प्रयोग कर सकती है!
आज हम विलासितावादी
संस्कृति के वशीभूत होकर, प्रकृति से निःशुल्क प्राप्त उपहारों का संवेदना रहित होकर
उपभोग कर रहे हैं।अपनी सुख सुविधा के लिए
प्राकृतिक स्रोतों का संपोषण किये बिना कृत्रिम उपकरणों का आविष्कार और उपभोग
बहुतायत से कर रहे हैं।परिणामतः ज्वालामुखी विस्फोट ,जलस्रोतों का सूखना ,मरुस्थलीकरण,जीवधारियों
की प्रजातियां नष्ट होने तथा नयी नयी बीमारियों की समस्या से ग्रसित होते जा रहे हैं
।आज प्रकृति के साथ संवेदनापूर्वक सम्बन्ध रखना अनिवार्य हो गया है अन्यथा प्रकृति
स्वयं संतुलन स्थापित करेगी तो सिर्फ विनाश होगा क्योंकि प्रकृति में कुछ भी असंतुलित
नही रहता।रूसो ने भी प्रकृति की ओर लौटने का आह्वान किया है।
डॉ कामिनी वर्मा, लखनऊ ( उ.प्र. )
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