मुठ्ठी भर धूप
**********
कच्ची उम्र के बच्चे
जब कंधों पर फटी बोरियां
लटकाए, सारा दिन
शहर की गलियों को
नापते रहते हैं और
कूड़ेदान में
दुनिया के लिए बेमतलब
हो चुकी चीजों से
अपने मतलब की चीजें
तलाशते हैं जो
उनकी जिंदगी का
अनमोल हिस्सा है।
इन सबकी माँ
कोयले की अंगीठी की तरह
सारा दिन धुआंती रहती हैं
कितने रमुआ, होरी, राजा
कच्ची दारू के नशे में
अपने अपने झोपड़-पट्टी को
सर पे उठाए हुए हैं
और बजा रहे हैं
खाली बरतनों का बाजा
यह एक दिन की बात नहीं
बल्कि सालों साल से
इसी तरह का माहौल
हरदिन गरमाया हुआ है
पेट भरने के जुगाड़ में...
मन के भीतर
ठन गया है
विचारों का महाभारत
आखिर इनके हिस्से की
मुट्ठी भर धूप
इन्हें कब, कहाँ और
कैसे मिलेगी?
वीणा पाण्डेय भारती
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कच्ची उम्र के बच्चे
जब कंधों पर फटी बोरियां
लटकाए, सारा दिन
शहर की गलियों को
नापते रहते हैं और
कूड़ेदान में
दुनिया के लिए बेमतलब
हो चुकी चीजों से
अपने मतलब की चीजें
तलाशते हैं जो
उनकी जिंदगी का
अनमोल हिस्सा है।
इन सबकी माँ
कोयले की अंगीठी की तरह
सारा दिन धुआंती रहती हैं
कितने रमुआ, होरी, राजा
कच्ची दारू के नशे में
अपने अपने झोपड़-पट्टी को
सर पे उठाए हुए हैं
और बजा रहे हैं
खाली बरतनों का बाजा
यह एक दिन की बात नहीं
बल्कि सालों साल से
इसी तरह का माहौल
हरदिन गरमाया हुआ है
पेट भरने के जुगाड़ में...
मन के भीतर
ठन गया है
विचारों का महाभारत
आखिर इनके हिस्से की
मुट्ठी भर धूप
इन्हें कब, कहाँ और
कैसे मिलेगी?
वीणा पाण्डेय भारती
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